उर्वशी
ज्योत्स्ना ‘ कपिल ‘
1
" यह क्या कर डाला तुमने " उसने एक बार विस्फारित नेत्रों से भूमि पर पड़ा भाई का मृत शरीर देखा और एक बार छोटी बहन की ओर दृष्टि डाली " तुमने उसे मार डाला ?"
" उसने ही तो कहा था कि यह दुनिया जीने लायक नहीं। " उसने सूनी आँखों से एक बार बड़ी बहन की ओर देखा और एक बार हाथ मे पकड़े चाकू पर निगाह डाली । आँखों मे अश्रु कण, चेहरे पर भयानक वीरानी और विक्षिप्तता ।
पर्दा गिर गया और ऑडिटोरियम में बैठे सभी दर्शक हतप्रभ से बैठे रह गए। कुछ पल एकदम शांति छाई रही, लग ही नहीं रहा था कि वहाँ दर्शकों का इतना विशाल समूह बैठा है। तभी पर्दा उठा, और दर्शक जैसे एक इन्द्रजाल से बाहर निकल आये। उनकी चेतना जागृत हो गई। सभी कलाकार दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत थे। एक एक करके नाटक में अभिनीत पात्र के नाम के साथ उनका परिचय दिया जा रहा था और वे दर्शकों का अभिवादन कर रहे थे । पूरा ऑडिटोरियम तीव्र करतल ध्वनि से जीवंत हो उठा। यह ध्वनि परिचायक थी इस बात की, कि उस कथानक व उसे अभिनीत करने वाले अभिनेताओं ने दर्शकों के मन मस्तिष्क पर कितना गहरा असर डाला है। सभी कलाकर ग्रीन रूम में आ गए। आपस में कुछ वार्तालाप के पश्चात वे सभी कॉस्ट्यूम बदलकर चलने को हुए तो एक किशोर लड़के ने आकर छोटी बहन का पात्र निभाने वाली उस खूबसूरत युवती उर्वशी की ओर सुर्ख गुलाब के फूलों का एक बड़ा सा गुलदस्ता पकड़ा दिया, और वहाँ से तुरंत चला गया।
" मैडम ये आपके लिए "
उसने बहुत प्रफुल्लता के साथ गुलदस्ता थाम लिया। उसने ध्यान से उसमें लगे छोटे से कार्ड को देखा, जिसमें लिखा था -
' आज के जानदार अभिनय के लिए हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।
शिखर । '
' कौन है ये ? कभी सामने क्यों नहीं आता ?' उसने स्वयं से सवाल किया।
" आ गयीं शुभकामनाएं ?" उसकी सहअभिनेत्री पल्लवी हँसी। जवाब में उर्वशी भी मुस्कुरा कर रह गई। पिछले एक वर्ष से यह हो रहा था । जब भी वह किसी भूमिका में अवतरित होती उसके पास एक बड़ा सा गुलदस्ता शुभकामनाओं के साथ पहुँच जाता । उसमे सिर्फ नाम लिखा होता था - शिखर। वह शिखर कौन है, देखने मे कैसा है, यह आज तक पता न चला था। उसके मस्तिष्क में ढेरों तस्वीरें बनती बिगड़ती थीं। वह जानने को बहुत उत्सुक थी कि कौन हैं यह महानुभाव ?
" उर्वशी, चल रही हो ?" साथी अभिनेता राजीव ने बाइक स्टार्ट करते हुए पूछा। उत्तर में उसने हामी भरी औऱ झट से बाइक में पीछे बैठ गई।
अपने फ्लैट में पहुँची तो देखा उसकी पुरानी मित्र और रूम पार्टनर सिम्मी उसका ही इंतज़ार कर रही थी। दरवाजे की घण्टी बजी तो सिम्मी ने दरवाजा खोला।
" वाओ, ब्यूटीफुल, अब तो जब भी तेरा प्ले होता है, मैं बुके का इंतजार करती हूँ। कुछ समय के लिए हमारा कमरा सज जाता है।" सिम्मी ने उसके हाथ से गुलदस्ता ले लिया और अपने कक्ष में रख लिया।
उर्वशी ने अपना बैग रखा और सीधे स्नान के लिए चली गई। गुनगुना पानी उसकी देह पर पड़ा तो लगा उसकी सारी क्लांति मिट गई। वह एकदम तरोताजा महसूस करने लगी। रसोई में गई तो देखा गोभी का पराठा और अचार उसका इंतजार कर रहा था। फ्लास्क में कॉफी भी रखी थी। यह देखकर वह बहुत हर्षित हो उठी। उसके मन मे सिम्मी के लिए बहुत सारा प्यार उमड़ पड़ा। जिस दिन कोई प्ले होता, वह हमेशा उर्वशी का ऐसे ही ख्याल रखती थी। कमरे में आकर उसने सिम्मी के गले मे बाहें डालकर बहुत स्नेह से उससे लिपट गई
" तेरी वजह से ही मैं दिल्ली में सरवाइव कर पा रही हूँ। अगर तू न होती तो मेरा क्या होता सिम्मी ? "
" कुछ भी नहीं, तब भी तू आराम से रह लेती, किसी के बिना दुनिया का कारोबार नहीं रुकता।" सिम्मी ने लाड़ से कहा। वह मुस्कुरा दी और भोजन करने लगी।
उर्वशी बाईस वर्षीय एक अद्वितीय सुंदरी युवती थी। उसकी बड़ी बड़ी आँखें, दूध में अबीर सा रंग, इकहरा शरीर, लम्बा कद, घनी स्याह केशराशि। देखने मे सचमुच वह अप्सरा सी सुंदर लगती थी, उसका सौंदर्य देखकर ही माता पिता ने उसे उर्वशी नाम दिया था। उसका परिवार आगरा में रहता था। उसके पिता बी एस चौहान,महाविद्यालय में गणित के व्याख्याता थे । वे खुले विचारों के व्यक्ति थे, जो अपनी संतानों में सर्वाधिक अपनी पुत्री के साथ जुड़े हुए थे। उसकी माँ एक कुशल, व्यवहारिक गृहणी थीं। जिनका जीवन अधिकतर भारतीय महिलाओं की तरह परिवार में सबकी सुख सुविधाओं का ख्याल रखने को ही समर्पित था। अपने समय की वह खासी पढ़ी लिखी महिला थीं। जो अपने कर्तव्यों के निर्वहन में ही व्यस्त रहतीं, अन्य महिलाओं के समान गपशप में उनकी रुचि नहीं थी। सबसे बड़े भाई उत्कर्ष ने आई आई टी किया था और अब वह ओटावा में एक अच्छी कम्पनी में कार्यरत था। उसका विवाह हो गया था, और अब वह वहीं बस गया था। उससे छोटा भाई उमंग होटल मैनेजमेंट का कोर्स करके लखनऊ में एक पाँच सितारा होटल में काम कर रहा था। उमंग के साथ उसकी अच्छी बनती थी। जब वह घर आता, दोनो भाई बहन दुनिया भर की बातों में खो जाते।
उर्वशी की रुचि अभिनय में होने के कारण वह दिल्ली आ गई थी। स्नातक करने के साथ वह दिल्ली के एक प्रसिद्ध नाट्य समूह से जुड़ गई थी, और थियेटर के लिए समर्पित थी। जैसे जैसे समय गुज़र रहा था उसके अभिनय में धार आती जा रही थी, और उसे एक गम्भीर अभिनेत्री माना जाने लगा था। स्नातक करने के उपरांत उसने अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर करने के लिए फॉर्म भर दिया। अध्ययन में उसे सिम्मी का काफी सहारा था। वह तो अभिनय के कारण अक्सर व्यस्त रहती थी। ऐसे में सिम्मी ही नोट्स बनवाने में उसकी मदद करती थी।
उर्वशी जब भी परफॉर्म करने स्टेज पर उतरती प्ले समाप्त होने के पश्चात शिखर नाम का व्यक्ति हर बार फूल तो भेजता था, पर कभी उसके सामने नही आया। न जाने क्यों ? उर्वशी के मस्तिष्क में यह नाम अक्सर हलचल मचाए रहता था। जब भी खाली होती उस अनदेखे, अनजाने शख्स की ही आकृति, बनती बिगड़ती रहती। कैसा होगा वह ? आकर्षक, कुरूप ? उजला, गहरी रंगत वाला ? धनी, निर्धन ? लम्बा, नाटा ? गम्भीर, हँसमुख ? युवा, उम्रदराज ? कभी सामने क्यों नहीं आता ? वह उसे देखने और बातें करने को बेचैन थी। कैसा दिखता होगा ? वह स्वभाव से कैसा होगा ? वह देर तक सोचती रहती। समय के साथ उसकी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। अब तक यह उत्कंठा अपनी चरम पर आ गई थी।
भोजन के उपरांत वह आँख बंद करके लेट गई और सोने का प्रयास करने लगी। दिन भर की घटनाएं उसके मस्तिष्क में चलचित्र की तरह घूमती रहीं। फिर न जाने कब नींद के आगोश में गुम हो गई। स्वप्न में भी शिखर नाम के जाने कितने चेहरे आपस मे गड्डमड्ड होते रहे। इस समय उसके जीवन मे कदाचित इससे बड़ी कोई उलझन न थी। काश की वह केवल एक बार सामने आ जाता।
* * * * *
ट्रेड फेयर शुरू हो रहा था और सिम्मी वहाँ जाने को बहुत उत्सुक थी। उर्वशी उस दिन आराम और पढ़ाई दोनो करने के मूड में थी। पर सिम्मी के जोर देने पर वह इस शर्त के साथ जाने को तैयार हो गई ट्रेड फेयर शुरू होने के समय तक वे दोनों वहाँ पहुँच जाएँगी और थोड़ी देर तक घूम घाम कर, इससे पहले की भीड़ बढ़े, वापस आ जाएंगी। ट्रैफिक का ख्याल करके वह दोनो जल्दी ही अपने घर से निकल पड़ीं। चूँकि सुबह का वक़्त था अतः वे दोनों,बिना जाम में फँसे ट्रेड फेयर पहुँच गईं। तब तक उसका उद्घाटन भी नहीं हुआ था।
तभी हलचल मच गई और एक राजनेता के साथ दिल्ली के युवा उद्योगपति राणा साहब आते नज़र आये। राजनेता मध्यम आयु व साधारण व्यक्तित्व और चेहरे मोहरे के थे, जबकि राणा साहब काफ़ी चुम्बकीय व्यक्तित्व के थे। उम्र लगभग पैंतीस वर्ष, ऊँचा कद, मजबूत काठी, गेहुँआ रंग, आँखों मे गज़ब का आकर्षण। उन्होंने सुरमई रंग का कीमती सूट पहन रखा था। पैरों में चमचमाते जूते, बायें हाथ की कलाई मे दामी घड़ी, दाहिने हाथ की कलाई में प्लेटिनम का ब्रेसलेट। आँखों पर मूल्यवान चश्मा। उर्वशी ने उन्हें देखा तो बहुत प्रभावित होती नजर आयी। तभी उनकी दृष्टि भी उसकी ओर पड़ी, तो कुछ पल को वह भी मंत्रमुग्ध से उसे देखते रह गए। फिर एकदम से उन्होंने निगाहें फेर लीं। उर्वशी ने भी अचकचा कर सिम्मी पर दृष्टि डाली।
" बहुत ही इम्प्रेसिव हैं न ?" उसने पूछा।
" हूँ "
" हूँ क्या ? कैसे देखे जा रही थी, असर तो तुझ पर भी खूब हुआ है,। हाँ खुशखबरी ये है कि उनकी नज़र भी तुझ पर से नहीं हट रही थी । आखिर मेरी सखी है ही इतनी खूबसूरत। " सिम्मी ने प्रशंसा करते हुए कहा।
" बस, ज्यादा झाड़ पर मत चढ़ा। " उसने सिम्मी को रोक दिया। फिर वे दोनों दोपहर तक घूमती रहीं। कई स्टॉल पर गईं, थोड़ी बहुत खरीदारी भी की। इस बीच घूमते हुए तीन बार राणा साहब से सामना हुआ। हर बार उन्होंने उसे नज़र भरकर देखा। वह भी कनखियों से उन्हें बार बार देखती रही। मेले में ही कुछ खा पीकर वह दोनों घर आ गईं तो थक कर चूर हो गई थीं। उर्वशी निढाल सी बिस्तर पर पड़ गई और आँखें बंद कर लीं। आँखें बंद करते ही वह चेहरा उसके समक्ष आ खड़ा हुआ। उसने वहाँ से अपना ध्यान हटाना चाहा, पर वह चेहरा बार बार उसे परेशान करता रहा। उस दिन वह पुस्तक लेकर तो बहुत देर बैठी रही, पर वह चेहरा और उनमें जड़ी दो आँखें उसे व्याकुल करती रहीं। उन आँखों मे इतना आकर्षण था कि वह चाहकर भी उन्हें बिसरा नहीं पा रही थी। फिर बड़ी मुश्किल से अपनी कल्पनाओं पर काबू पाकर वह अध्ययन में मन लगा पाई।
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उस दिन कालिदास कृत प्रसिद्ध नाटक ' मालविकाग्निमित्र ' का मंचन था। उसमें वह मालव देश की राजकुमारी मालविका बनकर अवतरित हुई। जब वह श्वेत परिधान में, रंगमंच पर राजकुमारी बनकर आयी तो लगा मानो स्वर्गलोक से कोई अप्सरा ही राह भूलकर श्रीराम सेंटर आ गई हो। पूरे ऑडिटोरियम में उजाला सा भर गया। देखने वालों की अवस्था ऐसी हो गई जैसे किसी जादूगर ने पूरी दर्शक दीर्घा में सम्मोहन कर दिया हो। उस दिन समानांतर सिनेमा के प्रसिद्ध निर्देशक दीपंकर घोष भी प्रस्तुति देखने आए हुए थे। नाटक के सभी कलाकारों में बहुत उत्साह था। हर कोई चाहता था कि आज वह अपने अभिनय की ऐसी छाप छोड़े की निर्देशक महोदय उसे अपनी किसी आगामी फिल्म के लिए साइन करके ही जाएं। उधर उर्वशी की सोच थोड़ी भिन्न थी। वह, यह तो मानती थी कि फ़िल्म एक बहुत बड़ा माध्यम है जो उसकी कला को अधिक विस्तार दे सकता है, उसे करोड़ों दर्शकों तक पहुंचा सकता है। जिससे उसकी ख्याति बहुत बढ़ जाएगी और धनार्जन भी प्रचुर मात्रा में होगा। परन्तु दूसरी ओर वह यह भी मानती थी कि उसके अभिनय में निखार, व नए आयाम जितना रंगमंच दे पाएगा उतना फ़िल्म नहीं। वहाँ अभिनय की अपनी सीमाएं हैं।
अंतिम दृश्य चल रहा था और दीपंकर उसमे खोए हुए थे। हर बदलते दृश्य के साथ उनके चेहरे पर भावों का परिवर्तन हो रहा था। अंतिम दृश्य के साथ जब पर्दा गिरा तो दीपंकर ने खड़े होकर देर तक करतल ध्वनि की। उपसंहार के पश्चात कलाकारों के परिचय का समय आया तो उनकी दृष्टि उर्वशी पर जमी रही। जब वह ग्रीन रूम में पहुँची, तो थोड़ी देर बाद उसके पास नाटक के निर्देशक आशुतोष का संदेश आया कि उसे दीपंकर बुला रहे हैं। यह सूचना एकदम से फैलती चली गई। कितने ही हृदय में उर्वशी के प्रति डाह की अग्नि प्रज्वलित हो उठी। वह आशंका भरे मन से आशुतोष के पास आयी तो देखा लगभग तीस वर्षीय, साँवली रंगत वाला एक दुबला सा व्यक्ति बैठा है। जिसने नीली जीन्स और खद्दर का कुर्ता पहन रखा है। आँखों पर नज़र का चश्मा, कन्धे तक झूलते घुँघराले,काले बाल, हाथ मे सुलगती हुई सिगरेट। उर्वशी को देखकर एक बार पुनः उसने सिर से पाँव तक निरीक्षण किया और फिर अपना दांया हाथ आगे बढ़ा दिया।
क्रमशः